
वक्फ़ संशोधन विधेयक 2024 एक अति संवेदनशील मुद्दा है। इस तरह के एजेंडे पब्लिक को इमोशनली ब्लैकमेल करने के लिए हवा में उछाले जाते हैं परन्तु मौखिक रूप में। लिखित दस्तावेज़ के तौर पर साम्प्रदायिक सद्भावना दूषित करने वाले जिन्न को पोटली से बाहर निकालने से सरकार को हमेशा परहेज करना चाहिए। माना; सत्ता में अनवरत बने रहने की भूख लोगों को रक्त पिपासा की ओर प्रेरित करती है। चुनाव के दरमियान धर्म विशेष के कुछ जज़्बाती लोगों को भड़का कर ध्रुवीकरण की कोशिश भी होती है। चुनाव आचार संहिता में इसे कदाचार की श्रेणी में रखा गया है, विपक्ष के नेताओं के ऊपर चुनाव आयोग की पैनी दृष्टि होती है। उनके खिलाफ़ कठोरतम कार्रवाई भी हो जाती है परन्तु सत्ता पक्ष का कोई भी कारनामा चुनाव आयोग की दृष्टि में नही आता. शायद उस वक़्त केंचुआ (केंद्रीय चुनाव आयोग) भोलेनाथ की बुटी के सेवन के प्रभाव में रहता है। सत्ताधारी दल को चुनाव जीतने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, किसी को ऐतराज हो भी नही सकता। पूस की रात हर किसी की हड्डी में कंपकंपी पैदा कर देता है, अलाव की जरूरत भी महसूस होती है। सम्भवतः अलाव का इंतजाम होता भी है लेकिन कोई नासमझ से नासमझ व्यक्ति भी अलाव के नाम पर अपनी झोपड़ी को अग्नि के हवाले नही करता! सत्ताधारी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सत्ता में आते ही वह किसी दल विशेष का सदस्य होने के बरअक्स देश के समस्त नागरिकों का प्रतिनिधि हो जाता है। फलस्वरूप उसे विभेद करने के पक्षपात से दूरी बना लेनी चाहिए। इस उदाहरण को कंठस्थ करके आगे बढ़ना चाहिए:-
आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे
जब ये बस्ती ही न रहेगी, तू कहाँ रह जायेगा।
पड़ताल
वक्फ़ संशोधन विधेयक के जरिए क्या देश में चल रहे विकास कार्यों के प्रयोग हेतु वक़्फ़ की जमीनों के अधिग्रहण का सरकार मंशा रखती है? यदि सरकार की ज़मीन अधिग्रहण की ही अवधारणा होती, तब सरकार के पास पहले से ही क़ानूनी अख्तियार मौजूद हैं। Land Acquisition Rehabilitation and Resettlement Act 2013 जो कि औपनिवेशिक काल में प्रचलित Land Acquisition Act 1894 को संशोधित करके बनाया गया था। यदि हम यह तर्क प्रस्तुत करें कि ऐसा करने पर वक़्फ़ की अधिग्रहित भूमि का सरकार को मुआवज़ा देना पड़ता, तर्क की कसौटी पर यह बहस अधिक देर तक टिकने के बरक्स औंधे मुँह गिर जायेगी। मोदी या अमित शाह जी इन सम्पत्तियों पर स्वयं के उपयोग के लिये अधिग्रहण तो कर नही रहे हैं कि मुआवजा की धनराशि उन्हें अपनी जेब से देनी पड़ती, लिहाज़ा वह इन ज़मीनों को मुफ़्त में हथिया लेना चाहते हैं।
क़ानूनी पहलू
भारत का संविधान दुनियाँ का सबसे बेहतरीन क़ानूनी दस्तावेज़ है। देश के समस्त नागरिकों को ध्यान में रखना चाहिए कि संविधान उनके धार्मिक विश्वास से अधिक विश्वासनीय व धार्मिक पुस्तकों से अधिक पवित्र ग्रंथ है। विभिन्न धर्मावलंबियों की धार्मिक पुस्तकें सिर्फ उनके सहधर्मी को ही अपनी संहिता में एकीकृत रख सकती है लेकिन संविधान देश के समस्त नागरिकों एकत्रित और अखंड रखने में सक्षम है। भारतीय संविधान नागरिकों में धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, वेश भूषा इत्यादि विभिन्नताओं के बावज़ूद एक सूत्र में पिरोने में सिर्फ़ इसलिए सक्षम है क्योंकि इसका अनुच्छेद 15; किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, लिंग या जन्म के आधार पर होने वाले विभेद को प्रतिषेध करता है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13(2) स्पष्ट तौर पर कहता है कि राज्य ऐसी कोई विधि नही बनायेगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती हो या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होग l
राज्य ऐसी किसी विधि को बनाने कोशिश नही करेगा जिससे किसी धर्म विशेष को नैसर्गिक न्याय से महरूम रखने की साज़िश की बू आती हो। अनुच्छेद 14 नैसर्गिक न्याय का सजग प्रहरी है।
अनुच्छेद 25; अंतःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता:-
(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने , आचरण करने और प्रचार करने का समान हक़ होगा।
अनुच्छेद 26; धार्मिक कार्यों के प्रबन्धन की स्वतंत्रता, एक हिदायत के साथ देता है कि लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी अनुभाग को;
(क) धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का।
(ख) अपने धर्म विषय कार्यों का प्रबंधन करने का।
(ग) जंगम और स्थावर सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का, और
(घ) ऐसी सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का, अधिकार होगा।;
15 सदस्यों वाली राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास जिसकी स्थापना 5 फ़रवरी 2020 को की गई, कुछ सदस्यों को केंद्र सरकार ने नामित किया शेष धार्मिक क्षेत्रों से हैं। न्यास का सदस्य होने की निर्धारित मापदंडों में प्रथमतः उस सदस्य का हिन्दू होना अनिवार्य है। प्रशासन से भी उसी अधिकारी को सदस्य बनाया जाएगा जो हिन्दू होगा। यदि जिलाधिकारी हिन्दू नही है तो मुख्य विकास अधिकारी सदस्य होगा। यदि दोनों हिन्दू नही है तो नगर आयुक्त या अपर जिलाधिकारी में से जो भी हिन्दू होगा वही इस न्यास के सदस्य होने का हकदार होगा। ठीक यही प्रक्रिया काशी विश्वनाथ धाम की समिति में भी अपनाई गई है। ऐसी स्थिति में जो मुसलमानों द्वारा दान/ जकात से बनाया गया वक़्फ़ बोर्ड है उसमें मुसलमानों के अलावा दूसरों को सदस्य बनाने की जिद क्या संविधान की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नही है? जिन्हें मुसलमानों की रिवायतों का इल्म नही है वह उनकी भावनाओं की कैसे कद्र कर सकते हैं?
अपने धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कार्य विधि की स्वतंत्रता सिर्फ़ हिन्दू न्यासों तक ही समिति नही है बल्कि यही छूट, सिखों, जैनियों, पारसियों, ईसाइयों सभी को मिली है। सिर्फ़ बौद्धों और मुसलमानों के धार्मिक मामलों में इस तरह की दखलंदाजी आख़िर क्यों?
साइड इफेक्ट
मुसलमानों के धार्मिक मामलों में बिना अधिकार के सरकार द्वारा दख़ल देने की साज़िश कहीं इसलिए तो नही की जा रही है ताकि साम्प्रदायिक दंगों की मारक क्षमता जो कुछ शहरों तक ही थी, वह अब कस्बों और गांवों तक पहुंच जाएं! यदि सांप्रदायिकता की यह लौ कस्बों और गांवों तक पहुंच जाती है और कुछ जगह लौ ज्वाला बन जाती है तब इसकी भयानकता की कल्पना से ही रूह कांप जाती है। कौन जलेगा इस सांप्रदायिकता के अग्नि कुण्ड में, आहुति की बलि वेदी पर कौन चढ़ेगा बलि पर? बाल गंगाधर तिलक और दीन दयाल उपाध्याय के भक्तों को पिछड़ों और दलितों का विधानसभा या लोकसभा में पहुंचना क्या इतना नागवार गुजर रहा है कि वह इन्हें सदनों से बाहर रखने के लिए देश को गृह युद्ध की विभीषिका में झोंकने को आतुर हो गए हैं?
देश कभी भी गृह युद्ध की त्रासदी को विवश न हो, मनोभाव को चरितार्थ करने की आवश्यकता है। देश के सजग नागरिकों को उन लोगों की साजिशों का भंडा फोड़ करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यदि देश में गृह युद्ध की साज़िश सफ़ल होती है तो सिर्फ़ मुसलमानों का ही नुक़सान नही होगा बल्कि पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों की बहुत ही बड़े पैमाने पर हानि होगी।
बाल गंगाधर तिलक को जैसे ही आभास हुआ कि पिछड़े और दलितों के लिए विधानसभा और लोकसभा में सीट आरक्षित की जाएगी, तभी से वह यह कहते नज़र आए कि कुनबी, मौर्या, अहीर गड़ेरिया सदन में आकार हल चलाएंगे क्या? दीन दयाल उपाध्याय तो कह रहे थे कि यदि पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को वोट देने का अधिकार दिया गया तो अंग्रेज मेरा मरा मुंह देखेंगे। नब्बे के दशक से द्विजों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) सदस्यों की विधानसभा और लोकसभा में सीट कम होने लगी है। पिछड़े और मुसलमानों में राजनीतिक तौर पर सहयोग करने की मनोवृत्ति बनी है, जिसकी वजह से चुनावों में पिछड़े और मुसलमान बड़े पैमाने पर सफ़ल होने लगे हैं। यही बात द्विजों को खाए जा रही है। कूटनीतिक रणनीति के तहत ही वक़्फ़ बोर्ड संशोधन विधेयक के ज़रिए पिछड़ों और मुसलमानों के बीच तेज़ी से पनप रहे सौहार्द को खण्डित करने के जाल बुने गए हैं, इस चाल को हर हाल में विफल कर देश के भ्रातृत्व भाव को खंडित होने से बचाने की जिम्मेदारी हर नागरिक के कन्धों पर है।
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ है
क्या मिरे हक़ में फैसला देगा।
इस मुंसिफ को बर्खास्त करने का सही वक्त आ गया है। पब्लिक मोबाइलाइज़ेशन अभियान से सभी को सतर्क करें ताकि इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर धनिक तन्त्र लागू करने मंशा फ़लीभूत न होने पाए!
गौतम राणे सागर
राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।