वक्फ अमेंडमेंट एक्ट 2025: सुप्रीम कोर्ट खुलने के बाद फैसले का इंतजार
कुछ खास बातें जो अदालत में सुनवाई के दौरान सामने आईं:

वक्फ टुडे:
दिल्ली : असदुद्दीन ओवैसी साहब AIMIM के सदर और मुख्य पेटीशनर की भूमिका में सामने आए, लेकिन जब सुनवाई 20, 21 और 22 मई को देश की सबसे बड़ी अदालत में चल रही थी, तब अचानक वह और उनके वकील बहस का हिस्सा नहीं बने और गायब हो गए। अब जनाब 20 मई के बाद किसी बड़े वक्फ के खिलाफ रैली में भी सामने नहीं आए — चाहे वह झारखंड हो, आंध्र प्रदेश या पटना।
कोर्ट में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मस्जिदों, दरगाहों और इमामबाड़ों पर बुलडोजर चलाया जा रहा था, लेकिन पांच मुख्य पेटीशनर के वकीलों ने अदालत का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं किया। इसका नतीजा यह हुआ कि बहुत सारी मस्जिदें, दरगाहें और कब्रिस्तानों को बुलडोज कर दिया गया।
सलमान खुर्शीद साहब, जो एक जाने-माने वकील हैं और इस्लामिक सेंटर की सदारत भी संभाल रहे हैं, इस ऐतिहासिक वक्फ अमेंडमेंट बिल की अदालत में बहस का हिस्सा नहीं बन सके और दूरी बनाए रखी।
कुल 73 पेटीशन अदालत में दाखिल हुए, लेकिन ज़्यादातर पेटीशनों को “कट एंड पेस्ट” की श्रेणी में पाया गया। इसीलिए कोर्ट ने सिर्फ़ 5 मुख्य पेटीशनों पर सुनवाई का फ़ैसला किया।
देश के माने-जाने वकीलों में शामिल कपिल सिब्बल, राजीव धवन और अभिषेक मनु सिंघवी बहस का हिस्सा बने, लेकिन हुज़ैफा अहमदी के अलावा किसी और मुस्लिम वकील की भूमिका कुछ खास नहीं रही।
एजाज़ मक़बूल का नाम सामने आया, जो कोऑर्डिनेटर की भूमिका में थे — ठीक वैसे ही जैसे बाबरी मस्जिद केस में भी थे। कोर्ट और पेटीशनर्स के बीच कोऑर्डिनेशन की ज़िम्मेदारी उन्होंने निभाई। बाबरी मस्जिद का नतीजा सबको मालूम है।
उनकी भूमिका अहम है, जैसे कि विष्णु जैन सरकार और हिंदू पक्ष की निभा रहे हैं। लेकिन फर्क यह है कि विष्णु जैन बहस भी करते हैं और खुद तमाम इबादतगाहों के खिलाफ पेटीशन भी करते हैं — जो कि एजाज़ मक़बूल नहीं करते।
लेकिन एजाज़ मक़बूल एक बेहतरीन लायजनर हैं और बड़ी मिली तंज़ीमों के पैनल पर वकील भी हैं, जिनका काम सरकार, अदालत और मिली तंज़ीमों के बीच एक कंफर्ट ज़ोन बनाना है। हालांकि ज़्यादातर मुकदमे हार जाना भी उनके रिकॉर्ड का हिस्सा है।
तमाम कमियों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में बहस अच्छी रही — लेकिन अब फैसले की घड़ी सामने आ गई है।
अदालत का फैसला ज़्यादातर सरकार के फेवर में आने की संभावना है, या फिर कुछ टीका-टिप्पणी के बाद एक बड़ी बेंच बनाकर लंबे समय तक सुनवाई का सिलसिला जारी रह सकता है।
मुस्लिम तंज़ीमें — जैसे कि जमात-ए-इस्लामी, जमीअत उलमा-ए-हिंद, अहले हदीस और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड — के पास लीगल सेल तो है, लेकिन उनके पास न डेटा है, न फील्ड स्टडी, न डॉक्युमेंटेशन, और न ही कोई थिंक टैंक। इस मुल्क में कानूनी जंग के लिए कोई स्पष्ट रोडमैप नहीं है। अदालत में वकीलों की फीस कैसे कम हो या मुफ्त में हो जाए, वे अक्सर इसी में व्यस्त रहते हैं। जाहिर है, चंदा के बिना यह काम नहीं चल सकता। इसी के लिए आमिर जमात मुल्क के अलग-अलग सूबों में कैंप लगाकर ज़कात और चंदे की बड़ी रकम वसूलते हैं। इस केस में भी मुल्क और मुल्क से बाहर से बड़ी रकम जमा की गई है। अब हर बात आवाम के सामने आनी चाहिए।
मुक़्तसरन कहना यह चाहता हूं कि मैं किसी जमात या अफराद के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन जो मुल्क में सूरते-हाल है, उसके मद्देनज़र छोटे कस्बों, बड़े कस्बों, सूबे की राजधानियों या देश की राजधानी में कोई ऐसी तंज़ीम की शक्ल बननी चाहिए जो कानूनी लड़ाई के लिए मुस्तैदी से काम कर सके।वरना 50 या 100 साल पुरानी तंज़ीमें किसी परिवार या कबीले की जागीर बन चुकी हैं और आज के इस दौर की लीगल लड़ाई के लायक नहीं बची हैं।मिल्लत में होनहार और काबिल तरीन लोगों की कमी नहीं है।उनकी तलाश कर एक बेहतर कल के लिए कोशिश की जानी चाहिए।
वक्फ (इबादतगाहों) को बचाने की लड़ाई हर मोमिन अफराद पर फ़र्ज़ है।



