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केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजू का स्वीकार, “उर्दू दुनिया की सबसे खूबसूरत भाषा”, फिर इस भाषा के साथ अन्याय क्यों?: एम. डब्ल्यू, अंसारी (आई.पी.एस.) सेवानिवृत्त डी.जी.

हाल ही में केंद्रीय मंत्री किरण रिजीजू ने शांति का संदेश देते हुए नफरत फैलाने वालों को करारा जवाब दिया है। उन्होंने खुलकर कहा “उर्दू दुनिया की सबसे खूबसूरत भाषा है।” यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि अतीत के साहित्य और संस्कृति से लेकर वर्तमान के सामाजिक परिवेश तक एक महत्वपूर्ण बात है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषाओं को राजनीति के प्रभाव से मुक्त करके उन्हें प्रेम और सभ्यता के प्रतीक के रूप में अपनाना चाहिए।

जहाँ एक ओर केंद्रीय मंत्री ने उर्दू भाषा को दुनिया की सबसे सुंदर भाषा माना है, वहीं भारत के संदर्भ में यदि कहा जाए कि उर्दू सबसे उपेक्षित भाषा है तो यह गलत नहीं होगा। पिछले कुछ वर्षों में जो पक्षपातपूर्ण रवैया सरकारों ने उर्दू के प्रति अपनाया है, वह निश्चय ही दुखद है। इस बीच मंत्री किरण रिजीजू का यह वक्तव्य यह दर्शाता है कि यदि नफरत की दृष्टि हटाकर न्याय की दृष्टि से देखा जाए तो हर व्यक्ति उर्दू की महत्ता को स्वीकार करेगा।

उर्दू ने सदियों में ग़ज़ल, कविता, गद्य और सांस्कृतिक संवाद की समृद्ध परंपरा को जन्म दिया है। इसकी शब्दावली और अभिव्यक्ति की शैली में वह कोमलता है जो दिलों को छू जाती है। यह बात याद रखनी चाहिए कि भाषाएँ लोगों को अलग नहीं करतीं, बल्कि जोड़ती हैं। और उर्दू तो प्रेम की भाषा है इसका साहित्यिक सौंदर्य और काव्यात्मक अंदाज़ लोगों को एक करता है।

यदि उर्दू की शैली शिक्षा प्रणाली, स्थानीय मीडिया और सरकारी संवादों में प्रमुखता पाए तो युवा पीढ़ी साहित्य से जुड़ेगी, वंचित वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलेगा और सामाजिक समरसता बढ़ेगी। जब राजनीति से मुक्त प्रशंसा आम होती है तो नफरत फैलाने वाले बयानों की ताकत स्वतःकम हो जाती है। प्रेम, साहित्य और साझा संस्कृति ही नफरत का सच्चा उत्तर है।

केंद्रीय मंत्री के इस बयान से यह भी स्पष्ट होता है कि उर्दू की प्रशंसा किसी एक समुदाय या वर्ग की संपत्ति नहीं है। देश के हर हिस्से में लोग चाहे वे साहित्यिक मंडलियों से हों, विद्यालयों के शिक्षक हों या आम नागरिक इसकी सुंदरता को स्वीकार करते हैं। भाषाओं की रक्षा वास्तव में देश की लोकतांत्रिक स्थिरता का हिस्सा है।

सभी राजनीतिक, साहित्यिक और सामाजिक व्यक्तियों की जिम्मेदारी है कि भाषाओं को राजनीतिक लाभ के साधन के रूप में इस्तेमाल न होने दें। उर्दू की प्रशंसा करना किसी समूह का समर्थन नहीं, बल्कि मानव सभ्यता का सम्मान है। हर भारतीय को उर्दू को अपनी

सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि उर्दू भारतीय भाषा है और यह हर भारतीय की विरासत है।

इस अवसर पर भारत सरकार से उर्दू की प्रगति और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता महसूस होती है। सबसे पहले यह कि मदरसों और सरकारी विद्यालयों में उर्दू की उपयुक्त पाठ्यपुस्तकें तैयार की जाएँ और क्षेत्रीय स्तर पर साक्षरता कार्यक्रम चलाए जाएँ। उर्दू अकादमियों को उचित आर्थिक और प्रशासनिक सहायता दी जाए, क्योंकि उन्हें उपेक्षित कर कमजोर किया जा रहा है। सरकार को इन संस्थाओं को पर्याप्त आर्थिक सहयोग देना चाहिए। सरकारी विभागों में अन्य भाषाओं के साथ उर्दू को भी स्थान मिले। राज्य और ज़िला स्तर पर जहाँ स्थानीय जनता उर्दू समझती हो, वहाँ सरकारी सूचनाएँ और नोटिस उर्दू में भी जारी किए जाएँ। जिस प्रकार अन्य भाषाओं और संस्कृत के संरक्षण के लिए बजट व्यय किया जाता है (जानकारी के अनुसार संस्कृत की 18 विश्वविद्यालयें हैं, जबकि उर्दू बोलने वालों की संख्या उससे कहीं अधिक है), उसी प्रकार उर्दू के संरक्षण और विकास के लिए भी विशेष बजट निर्धारित किया जाए।

उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति की जाए और उनके प्रशिक्षण एवं प्रमाणन के लिए ठोस योजना बनाई जाए, ताकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सुनिश्चित हो सके। आज जब युग डिजिटल हो चुका है, तब उर्दू की ऐतिहासिक पांडुलिपियों, पुस्तकों और पत्रिकाओं का डिजिटलीकरण किया जाए ताकि आम जनता के लिए उनकी पहुँच आसान हो। परीक्षाओं में उर्दू माध्यम के विद्यार्थियों के लिए प्रश्नपत्र उर्दू भाषा में भी उपलब्ध कराए जाएँ, जिससे उन्हें प्रश्न हल करने में सुविधा हो।

ऐसे व्यावहारिक कदमों से उर्दू न केवल सुरक्षित रहेगी बल्कि नई पीढ़ी में उसकी लोकप्रियता भी बढ़ेगी। यही सच्चा राष्ट्रीय हित है एक ऐसा देश जो अपनी भाषाओं से प्रेम करे, एक-दूसरे का सम्मान करे और शांति व एकता को अपना जीवन सिद्धांत बनाए।

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